लेख-निबंध >> किस प्रकार की है यह भारतीयता ? किस प्रकार की है यह भारतीयता ?यू. आर. अनन्तमूर्ति
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कुछ चुने हुए भाषणों, लेखों और साक्षात्कारों का संकलन...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय मूल्यों के प्रति अगाध निष्ठा और अपने व्यक्ति के स्तर पर विकट
आत्मालोचन यू.आर. अनन्तमूर्ति के लेखक के विशिष्ट गुण हैं। संस्कार,
अवस्था और भारतीपुर जैसे उपन्यासों में जिस प्रकार उन्होंने आधुनिक युग की
चुनौतियों को कथा के भावालोक में समझा है, वैसी ही गहनता के साथ इस पुस्तक
में संकलित निबंधों में उन्होंने उन पर विचार किया है। ‘मैं
अपने भीतर का आलोचक हूँ,’ वे कहते हैं। वे परंपराओं पर प्रश्न
करते हैं और विकास की प्रश्नाकुल द्वंद्वात्मकता में विश्वास रखते हैं।
किस प्रकार की है यह भारतीयता कुछ चुने हुए भाषणों, लेखों और साक्षात्कारों का संकलन है। दलित साहित्य, विकेन्द्रीकरण और संस्कृतिपरक कई आलोचनात्मक लेख इस पुस्तक में संकलित हैं। इन लेखों में लेखक क्षेत्रीय पवित्रता कायम रखने के लिए प्रतिबद्ध है। उनका मानना है कि उपनिवेशविरोध की राजनीति से उपजी हुई अपनी संस्कृति की रक्षा अपनी भाषा में ही सृजन करने से संभव है। अनन्तमूर्ति ने अभिव्यक्ति के प्रगटीकरण के लिए अपनी मातृभाषा कन्नड़ का ही इस्तेमाल किया है। ज्ञान का आगार होने के नाते वह अंग्रेजी का समर्थन करते हैं, लेकिन उसके आक्रमणकारी तेवर का विरोध भी करते हैं।
किस प्रकार की है यह भारतीयता कुछ चुने हुए भाषणों, लेखों और साक्षात्कारों का संकलन है। दलित साहित्य, विकेन्द्रीकरण और संस्कृतिपरक कई आलोचनात्मक लेख इस पुस्तक में संकलित हैं। इन लेखों में लेखक क्षेत्रीय पवित्रता कायम रखने के लिए प्रतिबद्ध है। उनका मानना है कि उपनिवेशविरोध की राजनीति से उपजी हुई अपनी संस्कृति की रक्षा अपनी भाषा में ही सृजन करने से संभव है। अनन्तमूर्ति ने अभिव्यक्ति के प्रगटीकरण के लिए अपनी मातृभाषा कन्नड़ का ही इस्तेमाल किया है। ज्ञान का आगार होने के नाते वह अंग्रेजी का समर्थन करते हैं, लेकिन उसके आक्रमणकारी तेवर का विरोध भी करते हैं।
लेखकीय
हिन्दी साहित्य-जगत मुझे सबसे ज्यादा सम्मान देता रहा है। हिन्दी के अनेक
लेखक मुझे अपने ही बीच का आदमी मानते हैं। इसके लिए मैं राधाकृष्ण प्रकाशन
का आभारी हूँ, उन्हीं के सहयोग से यह सम्भव हुआ। वे मुझे हिन्दी में लाए
और मेरे अधिकांश कथा-साहित्य को प्रकाशित/पुनर्प्रकाशित किया। इससे अधिक
मैं क्या अपेक्षा रख सकता हूँ ?..हिन्दी में जिस तरह मुझे स्वीकार किया
गया उससे मुझे वास्तविक रूप में यह अहसास हुआ है कि मैं एक भारतीय लेखक
हूँ जो कन्नड़ में लिखता है।
मुझे विश्वास नहीं था कि मेरे आलोचनात्मक निबन्ध, जिनका आधार कन्नड़ भावबोध है, हिन्दी पाठकों के लिए भी प्रासंगिक होंगे। मगर राधाकृष्ण प्रकाशन के मेरे शुभचिंतकों और मेरे पुराने मित्रों-अशोक वाजपेयी और डॉ. नामवर सिंह ने मुझे यह भरोसा दिलाया कि मेरे कथा-साहित्य के पाठक इन निबन्धों को भी उपयोगी पाएँगे और आम पाठक भी इनमें दिलचस्पी लेगा।
मैं उनका आभारी हूँ।
मुझे विश्वास नहीं था कि मेरे आलोचनात्मक निबन्ध, जिनका आधार कन्नड़ भावबोध है, हिन्दी पाठकों के लिए भी प्रासंगिक होंगे। मगर राधाकृष्ण प्रकाशन के मेरे शुभचिंतकों और मेरे पुराने मित्रों-अशोक वाजपेयी और डॉ. नामवर सिंह ने मुझे यह भरोसा दिलाया कि मेरे कथा-साहित्य के पाठक इन निबन्धों को भी उपयोगी पाएँगे और आम पाठक भी इनमें दिलचस्पी लेगा।
मैं उनका आभारी हूँ।
-यू.आर.अनन्तमूर्ति
भूमिका
आन्द्रे लेफेवेर जैसे अनुवाद-आलोचकों के प्रयत्नों के फलस्वरूप संस्कृति
को समझने की प्रक्रिया के रूप में आज ‘अनुवाद’ विकसित
हो रहा है। कभी-कभीर अनुवाद के बाद लक्ष्य-संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में
साधारणीकृत होने वाली मूल पाठ की प्रवृत्ति कई अनावश्यक पूर्वग्रहों को
पैदा कर सकती है। अत: अनुवादक, कभी-कभी मूल संस्कृति की प्रमुख कृतियों को
ही लक्ष्य-संस्कृति में प्रमुख बना देते हैं। इसलिए यह अत्यन्त आवश्यक है
कि मूल रचना के साथ ही साथ, मूल लेखक के साहित्य सम्बन्धी एवं साहित्येतर
विचारों को जानना अनुवादक के लिए अनिवार्य है। अत: मूल रचना के साथ ही साथ
मूल लेखक के संस्कृति-संबंधी विचारों का अनुवाद होना भी बेहद आवश्यक है।
यू.आर.अनन्तमूर्ति के नाटक, आलोचना और कविताओं को छोड़कर सारी रचनाएँ
हिन्दी में अनूदित हैं। इस संदर्भ में उनके साहित्य को आमूलाग्र समझने के
लिए उनके संस्कृतिपरक आलोचनात्मक साहित्य का अनुवाद करने की आवश्यकता
महसूस हुई। कई निबन्ध पहले से ही अनूदित थे, यहाँ हमने डॉ. अनन्तमूर्ति के
पहले से ही अनूदित लेखों के साथ-साथ उनके प्रमुख लेखों को हिन्दी में
अनूदित एवं संपादित करने का प्रयास किया है।
भारतीय सारस्वत एवं बौद्धिक और कलात्मक जगत् में उडुपी रंगनाथाचार्य अनन्तमूर्ति का नाम अत्यन्त प्रभावशाली रहा है। एक सृजनात्मक लेखक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक-राजनीति (Cultural Politics) के आलोचक के रूप में अनन्तमूर्ति भारतीय साहित्य की प्रतिनिधि हस्ती माने जाते हैं। स्वातंत्र्योत्तर द्वन्द्वों, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सन्दिग्धताओं एवं भारतीय साहित्य के वैचारिक संघर्षों को सशक्त रूपमें अभिव्यक्त करते हुए अनन्तमूर्ति के साहित्य एवं साहित्येत्तर व्यक्तित्व ने भारतीय संस्कृति में नई वैचारिक आन्दोलनात्मक प्रवृत्ति को प्रभावित किया है।
1950 के साहित्य को कन्नड़ में ‘नव्य’ आन्दोलन कहा जाता है (हिन्दी में ‘नवलेखन’ है)। विनायक कृष्ण गोकाक और गोपालकृष्ण अडिग के प्रवर्तन में ‘नव्य’ आन्दोलन अपना स्पष्ट रूप ले चुका था। लेकिन ‘नव्य’ आन्दोलन के सारे प्रमुख लेखक इस आन्दोलन से जुड़े रहकर भी अपनी वैचारिक एवं सृजनात्मक अभिव्यक्तियों में अपनी विशिष्टता लिए हुए थे। यू. आर. अनन्तमूर्ति, पी. लंकेश, शांतिनाथ देसाई, ए. के. रामानुजन, शंकर मोकाशी पुणेकर, सुमतीन्द्र नाडिग, तिरुमलेश, चन्द्रशेखर कम्बार, गंगाधर चित्ताल, गिरीश कार्नाड, श्रीकृष्ण आलनहल्ली, रावबहादुर, पूर्णचन्द्र तेजस्वी और निसार अहमद जैसे साहित्यकार तत्कालीन सांस्कृतिक मूल्यों को उजागर करने में सफल हुए। शाश्वत मूल्यों का प्रतिपादन, परम्परा का पुनर्मूल्यांकन, भाषा में नए-नए प्रयोगों (ध्वनि प्रयोग, भाषा की अपनी अस्मिता की पहचान आदि) के कारण ‘नव्य’ साहित्य का अपना महत्त्व है। लेकिन अनन्तमूर्ति की रचनाओं ने इन प्रवृत्तियों से गुजरते हुए भी इन्हीं की आलोचना की। अत: अपने ही वैचारिक-सांस्कृतिक प्रभावशाली मूल्यों के कारण अनन्तमूर्ति ‘नव्य आंदोलन’ के अत्यन्त प्रमुख लेखक बन गए।
डी. आर. नागराज ने अनन्तमूर्ति के लेखन-कार्य के दो पहलुओं की चर्चा की है। पहला है, अतिवादी पक्ष, जिसके अन्तर्गत उनके दो उपन्यास ‘संस्कार’ (1965) एवं ‘भारतीपुर’ (1973), उनकी कहानियों के संग्रह ‘प्रश्ने’ (1962) एवं ‘मौनी’ (1972) तथा साहित्यिक-सांस्कृतिक आलोचना की दो पुस्तकें ‘प्रज्ञे मत्तु परिसर’ (1974) और ‘सन्निवेश’ (1974) आती हैं।.. उनके लेखन के दूसरे पहलू को स्व-चिन्तन या आत्मान्वेषण कहा जा सकता है। हालाँकि यह कहना कठिन है कि इस पहलू की शुरूआत कब हुई। लेकिन यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि इसका प्रारंभ उनके तीसरे उपन्यास ‘अवस्थे’ (1978) के प्रकाशन से हुआ और ‘सूर्यन कुदुरे’ (सूरज का घोड़ा; 1989) कहानी के प्रकाशन के समय यह चरमावस्था को पहुँचा। मूलत: उनका हाल ही का उपन्यास ‘भव’ (1994) और कहानी ‘अक्कय्या’ (दीदी) जैसी रचनाओं में उपनिवेशवाद से मुक्त जीवन की तलाश है। ‘बेत्तले पूजे याके कूडदु’ (नग्नपूजा पद्धति क्यों मना है ?; 1996) आलोचनात्मक पुस्तक में भूमंडलीकरण का कड़ा विरोध किया गया और आंचलिक संस्कृति की पवित्रता को बचाए रखने की बात सोची गई है।
‘एन्देन्दु’ मुगियद कथे’ (कभी न समाप्त होने वाली कहानी; 1955) कहानी से लेकर ‘अक्कय्या’ (दीदी; 1996) तक जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि अनन्तमूर्ति का साहित्य अधिक गंभीर, निरंतर जीवन-शोधात्मक एवं भारतीय संस्कृति के पुनर्मूल्यांकन करने की प्रवृत्ति से ओत-प्रोत है। ‘बर’ (सूखा) ‘घटश्राद्ध’, ‘प्रकृति’, ‘प्रश्ने’, ‘खोजराज’ जैसी कहानियों में स्वातंत्र्योत्तर सांस्कृतिक-सामाजिक बुराइयों एवं वैयक्तिक तनावों, कुंठाओं का संघर्ष अभिव्यक्त हुआ है। टी. पी. अशोक ने, ‘एन्देन्दु मुगियद कथे’ की समीक्षा करते हुए ठीक ही लिखा है, ‘‘अनन्तमूर्ति ने ‘कभी समाप्त न होने वाली इस सम्पूर्ण कहानी का चित्रण करते हुए उसकी निरंतरता-गतिशीलता को बदलने की राजनीतिक इच्छा से अपनी समग्र साहित्य-प्रक्रिया में वैचारिक, तात्त्विक, नैतिक ढाँचों में संपूर्ण मानवीय जीवन का ही पुनर्मूल्यांकन करने का प्रयास किया है। पूर्णचन्द्र तेजस्वी ने भी इस संदर्भ में ठीक ही लिखा है, ‘‘अनन्तमूर्ति ने एक ही कहानी लिखी है वह है ‘कभी न समाप्त होने वाली कहानी’-यह बात उनके संपूर्ण साहित्यिक लेखों पर लागू होती है।’’
उनका पहला उपन्यास ‘संस्कार’ (1965) एक ऐसी विशिष्ट कृति है जिसे आधुनिक साहित्य में एक कालजयी रचना के रूप में स्वीकृति मिली और जिसने उन्हें नव्य भारतीय चिन्तन प्रवृत्ति के केन्द्र में प्रतिष्ठित किया। ‘संस्कार’ का अंग्रेजी अनुवाद ए. के. रामानुजन ने किया था जिसने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति एवं महत्त्व दिलाया। उनकी आरंभिक कृतियों में मार्क्स, गांधी, सार्त्र, लोहिया, जिड्डु कृष्णमूर्ति और लॉरेंस के प्रभाव स्पष्ट दिखाई देते हैं। ‘संस्कार’ में अस्तित्व के संकट, विद्रोह, ब्राह्मण और शूद्र की तपस्या और लॉरेंस के सौंदर्यबोध पर प्रखर आलोचना हुई है। आधुनिक प्रवृत्ति के लेखक होते हुए भी उन्होंने उसी की आलोचना की। ‘संस्कार’ के प्राणेशाचार्य जब चंद्री (जो प्रकृति का संकेत है) के साथ समागम करते हैं तब उनका जीवन सफल और सुखमय बनता है। पूँजीवाद में वैज्ञानिक प्रगति और औद्योगिकीकरण के द्वारा मानव प्रकृति का उपयोग हुआ। मानव ने प्रकृति के साथ, मिटटी के साथ जीना छोड़ दिया। इस असहजता में भाव की जगह बुद्धि आई, मुक्त जीवन जीने में और सोचने में यांत्रिकता आई। प्राणेशाचार्य, दासाचार्य और अन्य ब्राह्मणों का प्रकृति से विलगाव होने के कारण उनका जीवन द्वन्द्व, सहज, कृत्रिम और अवास्तविक बन गया है। अत: ‘संस्कार’ उपन्यास में संपूर्ण भारतीय जीवन को पुनर्मूल्यांकित करने का प्रयास किया गया है।
उनका दूसरा उपन्यास ‘भारतीपुर’ (1973) इस युग के वैचारिक द्वन्द्वों को उजागर करता है। इंग्लैड़ की पढ़ाई से मौलिक जिन्दगी न पाकर जगन्नाथ वापस भारत आता है। वह मंजुनाथ मंदिर में शूद्रों को प्रवेश दिलाकर संपूर्ण समाज के अविश्वास, मूढ़ता मतान्धता और असहनीय कट्टरपंथीय स्वभावों को बदलना चाहता है। गांधीवाद और नेहरूवाद का वैचारिक द्वन्द्व इस उपन्यास का वैचारिक धरातल है लेकिन अंतत: दोनों वाद हार जाते हैं। सच है कि स्वतंत्रता के पचास साल बाद भी कई राजनीतिक-सांस्कृतिक कारणों से गांधीवाद और नेहरूवाद असफल हो चुके हैं। भारत अभी भी गरीबी, अशिक्षा एवं भ्रष्टाचार के कारण पिछड़ा देश है।
इस असफलता का कारण निकृष्ट भारतीय राजनीति है। उनका तीसरा उपन्यास ‘अवस्थे’ (अवस्था; 1978) नए राजनीतिक एवं नैतिक मूल्यों की तलाश करता है। जनता-परक आन्दोलनों की राजनीति, नक्सलवादी आन्दोलन की गरम राजनीति और संविधान की अन्दरूनी नीच राजनीति और प्रामाणिक-नैतिक राजनीति में द्वन्द्व इस उपन्यास के प्रमुख वैचारिक संघर्ष है। इसमें मार्क्सवाद गांधीवाद और लोहियावाद के आपसी द्वन्द्व का आमना-सामना होकर, राजनीति को आध्यात्मिक स्तर पर ले जाने का प्रयास है लेकिन इतिहास की अपनी गति है, जहाँ कृष्णप्पा भी हार जाता है।
प्रामाणिक लेखक को यथार्थ और आदर्श के यायलेक्टिव को एक साथ ग्रहण करना संभव होना चाहिए, तभी साहित्य सच हो सकता है। इस द्वन्द्व का सजीव चित्रण ‘क्लिप जाइंट’, ‘खोजराज’ और ‘आक्रमण’ कहानियों में हुआ है। लेकिन पश्चिम की संस्कृति के विकल्प में भारतीय संस्कृति को खड़ा करना उनका उद्देश्य है।
‘सूर्यन कुदुरे’ (सूरज का घोड़ा), ‘अक्कय्या’ (दीदी) कहानी और ‘भव’ उपन्यास तक आते-जाते अनन्तमूर्ति अधिक परिपूर्णता प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ अनावश्यक द्वन्द्व अतिवादी विद्रोह नहीं है। बल्कि आत्मावलोकन, स्व-स्वीकृति और अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक राजनीति में भारत की सृजनशीलता की रक्षा का वैचारिक संघर्ष उजागर हुआ है। ‘हडे वेंकट’ (सूर्यन कुदुरे), ‘अक्कयया’ (अक्कय्या) और ‘चन्द्रप्पा’ (भव) पात्र भारतीय संस्कृति की शोध में पाए गए चरित्र हैं जिनमें कहीं भी उपनिवेशवाद, भूमण्डलीकरण और इतिहास बोध नहीं है। वे अपनी संस्कृति के आन्तरिक स्वरूपों को उजागर करते हैं जहाँ प्रकृति-श्री है। इस तरह अनन्तमूर्ति की सृजनात्मक लेखन-प्रक्रिया ‘कभी न समाप्त होने वाली कहनी’ (कहानी) से प्रारम्भ होकर ‘भव’ (उपन्यास) के आध्यात्मिक स्तर पर प्रकृति के दिव्य सान्निध्य में तादात्म्य पाने की कोशिश है। के .वी. सुब्बण्णा ने अनन्तमूर्ति के उपन्यासों को तीसरी दुनिया के अन्य देशों की रचनाओं की तुलना में अधिक सफल तथा श्रेष्ठ बताया है। जी. एस. अमूर ने अनन्तमूर्ति को एक गंभीर लेखक बतलाते हुए कहा है-‘‘पश्चिम में उपन्यास-विधा ही समाप्त हो रही है, इस संदर्भ में अनन्तमूर्ति का उपन्यास भारतीय संस्कृति के आन्तरिक तनावों, संघर्ष और कोलाहलों को समझने में अधिक उपयोगी है।’’ वी. एस. नायपाल, एरिक, ऐरिकसन, चिनुवा अचिबे जैसे लोगों ने अनन्तमूर्ति की रचनाओं को भारतीय संस्कृति के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण पाया है।
अनन्तमूर्ति के ‘आवाहने’ (आह्वान; नाटक) और ‘अज्जन हेगल सुक्कुगलु’ (दादा के कन्धों की झुर्रियाँ) ‘मिथुन’ (कविता-संग्रह) भी उनकी अन्य मौलिक कृतियों में मुखरित वैचारिक, साहित्यिक, जीवन-शोध की अभिव्यक्ति करते हैं। लेकिन उनकी आलोचनात्मक पुस्तक ‘प्रज्ञे मत्तु परिसर’ (1972), ‘सन्निवेश’ (1974), ‘समक्षम’ (1982) ‘पूर्वापर’ (1990), ‘बेत्तले पूजे याके कूडदु ?’ (नग्नपूजा पद्धति क्यों मना है ?; 1996) में केवल साहित्यकार द्वारा दी गई टिप्पणियाँ मात्र नहीं हैं, बल्कि वे एक संवेदनशील नागरिक द्वारा (साहित्येतर) भारतीय जीवन के सांस्कृतिक मूल्यों की तलाश हैं। इतना ही नहीं रसेल की तरह अनन्तमूर्ति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और जीवन के तमाम द्वन्द्वों पर विचार प्रकट करते हैं।
अनन्तमूर्ति कहते हैं: ‘‘मैं अपने आभ्यंतर का आलोचक (Critical Insider) हूँ। अपनी संस्कृति को अपनी दृष्टि से ही देखना, अनुमान करना हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है। हमारी परम्परा का विकास भी इसी कारण हुआ है। वेद की परम्परा आई। बुद्ध ने इस पर प्रश्न किया। मैं भी उसी परम्परा का हूँ। साहित्य का हूँ। साहित्य में भी बसवण्णा, कनकदास, कुमारव्यास, नवोदय लेखक नव्य लेखक, कालानुक्रम में परम्परा से यही प्रश्न करते, धक्का देते हुए उसका विकास करते हुए आए हैं।’’ उनके आभ्यंतर का यह आलोचक, स्वातंत्र्योत्तर सांस्कृतिक मूल्यों को, द्वन्द्वों को स्पष्ट रूप से बेधना चाहता है। ‘प्रक्षे मत्तु परिसर’ आलोचनात्मक पुस्तक में, ब्राह्मण-शूद्र की तपस्या, सार्त्र, सैमुएल बेकेट, शिवराम कारंत, राममनोहर लोहिया और अन्य भाषायी-साहित्यिक-वैचारिक समस्याओं पर गहरी आलोचना मुखरित हो उठी है। अंग्रेजी भाषा का वे आँख मूँदकर विरोध नहीं करते हैं। आज अंग्रेजी भाषा केवल भाषा ही नहीं-वह कई प्रकार के अधिकार, शक्ति, सत्तात्मक मूल्यों का प्रतीक और ज्ञान का आगार है। भारतीय भाषाएँ भी समृद्ध अवश्य हैं लेकिन राजनीतिक शक्ति के अभाव में वे विश्व में प्रमुख नहीं बनीं। एक ओर अनन्तमूर्ति अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध ज्ञान को ग्रहण करने के लिए कहते हैं तो अंग्रेजी भाषा के आक्रमणकारी स्वभावों का विरोध भी करते हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में हिंदी भी अंग्रेजी की तरह आधिकारिक-सत्तात्मक स्वभाव अपना रही है। इस तरह ‘अंग्रेजी-स्वभाव’ से रहित भाषा को मुक्त हृदय से अपनाकर देशी भाषा की भव्य परम्परा का, उसके अस्तित्व के स्वरूपों का पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत है। लोहिया, सार्त्र, मार्क्स के विचारों के साथ-साथ भारतीय समाज को समझने के लिए ऐसी भाषा को अपनाने में कोई गलती नहीं है। एक ओर विदेशी चिन्तकों से और दूसरी ओर भारतीय चिन्तकों से आकर्षित होकर अनन्तमूर्ति ‘मुक्त’ रूप से भारतीय संस्कृति को परखना चाहते हैं।
‘सन्निवेश’ (1974) और ‘समक्षम’ (1978) आलोचनात्मक पुस्तकें खासतौर पर सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित हैं। ‘पूर्वापर’ (1990) में एडवर्ड सईद की ‘ओरियण्टलिज़्म’ (Orientalism) पुस्तक की आलोचना करते हुए भारतीय संस्कृति के महत्त्व पर अधिक बल दिया गया है। अंग्रेज भी भारतीय संस्कृति से प्रभावित थे। गांधी, भगवान बुद्ध जैसे लोगों को सारी दुनिया स्वीकारती है। अमरीका, इंग्लैड की टूटती संस्कृति के परिवेश में गांधीवाद उन्हें अधिक प्रासंगिक लगता है। दक्षिण अफ्रीका के लेखक चिनुवा अचिबे के साथ जो महत्त्वपूर्ण संवाद किया उसने अनन्तमूर्ति को तीसरी दुनिया के आदमी को समझने के लिए प्रेरित किया है। दलित साहित्य, विकेन्द्रीकरण और संस्कृतिपरक कई आलोचनात्मक लेख इस पुस्तक में संकलित है।
1996 की पुस्तक ‘बेत्तले पूजे याके कूडदु’ में दर्शाया गया है कि तत्त्कालीन सार्वत्रीकरण से भारतीय संस्कृति की क्षेत्रीय पवित्रता खत्म हो रही है। समानता के आधार पर सार्वत्रीकरण होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, केपिटलिस्टों की सांस्कृतिक-राजनीति (Cultural Politics) नवबौद्धिकता की बेवकूफी, पलायनवादी बुद्धिजीवी और खोखले संस्कृति-कर्मियों पर उनके व्यंग्य को अनन्तमूर्ति की ‘सूर्यन कुदुरे’ (सूरज का घोड़ा), ‘अक्कय्या’ (दीदी) जैसी कहानियों के संदर्भ में उनकी तत्कालीन आलोचनात्मक पृष्ठभूमियों में समझा जा सकता है।
आजकल भारतीय मानस अमरीका, इंग्लैड आदि देशों के बारे में बहुत सोचता है किन्तु अपने ही प्रान्त की भाषा, संस्कृति के बारे में अधिक नहीं सोचता। इस तरह अपनी भाषा और संस्कृति के बारे में न सोचना और अनजान बने रहना हमारे लिए लज्जाजनक बात है। इसीलिए अनन्तमूर्ति ने क्षेत्रीय पवित्रता को बरकरार रखने पर बल दिया है। इस उपनिवेशीकरण की राजनीति से उपजी हमारी अपनी संस्कृति की रक्षा, अपनी भाषा में ही सृजन करने से संभव है। अनन्तमूर्ति हमेशा अपनी मातृभाषा कन्नड़ में ही सृजनात्मक कार्य करते आए हैं, यह इस बात की पुष्टि करती है। ऐसे लेखकों से अनन्तमूर्ति जी सदैव खिन्न रहे हैं जो विदेश में अपनी धाक जमाने के लिए अपनी संस्कृति को उनकी खुशी के लिए उघाड़कर रखते हैं और अंग्रेजी में लिखते हैं।
किसी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करते समय लेखक के सांस्कृतिक विचारों का हनन न हो जाए, यह बहुत ही नाजुक स्थिति है। अत: कन्नड़ मातृभाषा के नन्दकुमार हेगड़े ने इस स्थिति को हिन्दी में अनूदित करते समय वाक्य-संरचना में और शब्दों के प्रयोग में कितना ध्यान रखा उसकी एक-एक पंक्ति पर प्रो. नूरजहाँ बेगम (हिन्दी मातृभाषी) ने घंटों चर्चा करके समझ-बूझकर उसे अंतिम रूप दिया है। हमने अहिन्दीभाषियों के अनेक अनुवाद हिन्दी भाषा में देखे हैं जहाँ हमें यही लगा कि यदि किसी हिन्दी मातृभाषी के साथ मिलकर यह अनुवाद किया गया होता तो अनुवाद के सौन्दर्य को बरकरार रखा जा सकता था। अत: हम दोनों ने इसी मानसिकता से सोच-समझकर इस अनुवाद को सम्पन्न किया है।
अनन्तमूर्ति के संस्कृति-संबंधी विचार कई अंग्रेजी-कन्नड़ पत्रिकाओं में बिखरे हुए हैं; कई भाषाओं और साक्षात्कारों में उन्होंने संस्कृति-संबंधी विचार व्यक्त किए हैं। लेकिन उन सबको यहाँ अनूदित रूप में प्रस्तुत न कर, कुछ चुने हुए, भाषणों, लेखों और साक्षात्कारों का अनुवाद कर संकलित किया गया है। ‘पूर्वग्रह’ ‘आलोचना’ और ‘समकालीन’ भारतीय साहित्य’ पत्रिकाओं में पहले-पहल कई निबन्ध अनूदित हो चुके थे। जिन्हें अन्य प्रतिष्ठित रचनाकारों ने अनूदित किया था। उनकी कृपा से हमने पाठकों के अध्ययन की सुविधा के लिए उन लेखों को भी यहाँ सम्मिलित कर लिया है, उनके प्रति हम आभारी एवं कृतज्ञ हैं। प्रत्येक लेख के अंत में उसके अनुवादक का नाम दे दिया गया है। प्रो.यू.आर.अनन्तमूर्ति जी ने अनुवाद के लिए हमें अनुमति दी और राधाकृष्ण प्रकाशन ने पुस्तक को प्रकाशित करने का कष्ट किया, उनके प्रति भी हम बहुत आभारी हैं।
भारतीय सारस्वत एवं बौद्धिक और कलात्मक जगत् में उडुपी रंगनाथाचार्य अनन्तमूर्ति का नाम अत्यन्त प्रभावशाली रहा है। एक सृजनात्मक लेखक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक-राजनीति (Cultural Politics) के आलोचक के रूप में अनन्तमूर्ति भारतीय साहित्य की प्रतिनिधि हस्ती माने जाते हैं। स्वातंत्र्योत्तर द्वन्द्वों, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सन्दिग्धताओं एवं भारतीय साहित्य के वैचारिक संघर्षों को सशक्त रूपमें अभिव्यक्त करते हुए अनन्तमूर्ति के साहित्य एवं साहित्येत्तर व्यक्तित्व ने भारतीय संस्कृति में नई वैचारिक आन्दोलनात्मक प्रवृत्ति को प्रभावित किया है।
1950 के साहित्य को कन्नड़ में ‘नव्य’ आन्दोलन कहा जाता है (हिन्दी में ‘नवलेखन’ है)। विनायक कृष्ण गोकाक और गोपालकृष्ण अडिग के प्रवर्तन में ‘नव्य’ आन्दोलन अपना स्पष्ट रूप ले चुका था। लेकिन ‘नव्य’ आन्दोलन के सारे प्रमुख लेखक इस आन्दोलन से जुड़े रहकर भी अपनी वैचारिक एवं सृजनात्मक अभिव्यक्तियों में अपनी विशिष्टता लिए हुए थे। यू. आर. अनन्तमूर्ति, पी. लंकेश, शांतिनाथ देसाई, ए. के. रामानुजन, शंकर मोकाशी पुणेकर, सुमतीन्द्र नाडिग, तिरुमलेश, चन्द्रशेखर कम्बार, गंगाधर चित्ताल, गिरीश कार्नाड, श्रीकृष्ण आलनहल्ली, रावबहादुर, पूर्णचन्द्र तेजस्वी और निसार अहमद जैसे साहित्यकार तत्कालीन सांस्कृतिक मूल्यों को उजागर करने में सफल हुए। शाश्वत मूल्यों का प्रतिपादन, परम्परा का पुनर्मूल्यांकन, भाषा में नए-नए प्रयोगों (ध्वनि प्रयोग, भाषा की अपनी अस्मिता की पहचान आदि) के कारण ‘नव्य’ साहित्य का अपना महत्त्व है। लेकिन अनन्तमूर्ति की रचनाओं ने इन प्रवृत्तियों से गुजरते हुए भी इन्हीं की आलोचना की। अत: अपने ही वैचारिक-सांस्कृतिक प्रभावशाली मूल्यों के कारण अनन्तमूर्ति ‘नव्य आंदोलन’ के अत्यन्त प्रमुख लेखक बन गए।
डी. आर. नागराज ने अनन्तमूर्ति के लेखन-कार्य के दो पहलुओं की चर्चा की है। पहला है, अतिवादी पक्ष, जिसके अन्तर्गत उनके दो उपन्यास ‘संस्कार’ (1965) एवं ‘भारतीपुर’ (1973), उनकी कहानियों के संग्रह ‘प्रश्ने’ (1962) एवं ‘मौनी’ (1972) तथा साहित्यिक-सांस्कृतिक आलोचना की दो पुस्तकें ‘प्रज्ञे मत्तु परिसर’ (1974) और ‘सन्निवेश’ (1974) आती हैं।.. उनके लेखन के दूसरे पहलू को स्व-चिन्तन या आत्मान्वेषण कहा जा सकता है। हालाँकि यह कहना कठिन है कि इस पहलू की शुरूआत कब हुई। लेकिन यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि इसका प्रारंभ उनके तीसरे उपन्यास ‘अवस्थे’ (1978) के प्रकाशन से हुआ और ‘सूर्यन कुदुरे’ (सूरज का घोड़ा; 1989) कहानी के प्रकाशन के समय यह चरमावस्था को पहुँचा। मूलत: उनका हाल ही का उपन्यास ‘भव’ (1994) और कहानी ‘अक्कय्या’ (दीदी) जैसी रचनाओं में उपनिवेशवाद से मुक्त जीवन की तलाश है। ‘बेत्तले पूजे याके कूडदु’ (नग्नपूजा पद्धति क्यों मना है ?; 1996) आलोचनात्मक पुस्तक में भूमंडलीकरण का कड़ा विरोध किया गया और आंचलिक संस्कृति की पवित्रता को बचाए रखने की बात सोची गई है।
‘एन्देन्दु’ मुगियद कथे’ (कभी न समाप्त होने वाली कहानी; 1955) कहानी से लेकर ‘अक्कय्या’ (दीदी; 1996) तक जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि अनन्तमूर्ति का साहित्य अधिक गंभीर, निरंतर जीवन-शोधात्मक एवं भारतीय संस्कृति के पुनर्मूल्यांकन करने की प्रवृत्ति से ओत-प्रोत है। ‘बर’ (सूखा) ‘घटश्राद्ध’, ‘प्रकृति’, ‘प्रश्ने’, ‘खोजराज’ जैसी कहानियों में स्वातंत्र्योत्तर सांस्कृतिक-सामाजिक बुराइयों एवं वैयक्तिक तनावों, कुंठाओं का संघर्ष अभिव्यक्त हुआ है। टी. पी. अशोक ने, ‘एन्देन्दु मुगियद कथे’ की समीक्षा करते हुए ठीक ही लिखा है, ‘‘अनन्तमूर्ति ने ‘कभी समाप्त न होने वाली इस सम्पूर्ण कहानी का चित्रण करते हुए उसकी निरंतरता-गतिशीलता को बदलने की राजनीतिक इच्छा से अपनी समग्र साहित्य-प्रक्रिया में वैचारिक, तात्त्विक, नैतिक ढाँचों में संपूर्ण मानवीय जीवन का ही पुनर्मूल्यांकन करने का प्रयास किया है। पूर्णचन्द्र तेजस्वी ने भी इस संदर्भ में ठीक ही लिखा है, ‘‘अनन्तमूर्ति ने एक ही कहानी लिखी है वह है ‘कभी न समाप्त होने वाली कहानी’-यह बात उनके संपूर्ण साहित्यिक लेखों पर लागू होती है।’’
उनका पहला उपन्यास ‘संस्कार’ (1965) एक ऐसी विशिष्ट कृति है जिसे आधुनिक साहित्य में एक कालजयी रचना के रूप में स्वीकृति मिली और जिसने उन्हें नव्य भारतीय चिन्तन प्रवृत्ति के केन्द्र में प्रतिष्ठित किया। ‘संस्कार’ का अंग्रेजी अनुवाद ए. के. रामानुजन ने किया था जिसने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति एवं महत्त्व दिलाया। उनकी आरंभिक कृतियों में मार्क्स, गांधी, सार्त्र, लोहिया, जिड्डु कृष्णमूर्ति और लॉरेंस के प्रभाव स्पष्ट दिखाई देते हैं। ‘संस्कार’ में अस्तित्व के संकट, विद्रोह, ब्राह्मण और शूद्र की तपस्या और लॉरेंस के सौंदर्यबोध पर प्रखर आलोचना हुई है। आधुनिक प्रवृत्ति के लेखक होते हुए भी उन्होंने उसी की आलोचना की। ‘संस्कार’ के प्राणेशाचार्य जब चंद्री (जो प्रकृति का संकेत है) के साथ समागम करते हैं तब उनका जीवन सफल और सुखमय बनता है। पूँजीवाद में वैज्ञानिक प्रगति और औद्योगिकीकरण के द्वारा मानव प्रकृति का उपयोग हुआ। मानव ने प्रकृति के साथ, मिटटी के साथ जीना छोड़ दिया। इस असहजता में भाव की जगह बुद्धि आई, मुक्त जीवन जीने में और सोचने में यांत्रिकता आई। प्राणेशाचार्य, दासाचार्य और अन्य ब्राह्मणों का प्रकृति से विलगाव होने के कारण उनका जीवन द्वन्द्व, सहज, कृत्रिम और अवास्तविक बन गया है। अत: ‘संस्कार’ उपन्यास में संपूर्ण भारतीय जीवन को पुनर्मूल्यांकित करने का प्रयास किया गया है।
उनका दूसरा उपन्यास ‘भारतीपुर’ (1973) इस युग के वैचारिक द्वन्द्वों को उजागर करता है। इंग्लैड़ की पढ़ाई से मौलिक जिन्दगी न पाकर जगन्नाथ वापस भारत आता है। वह मंजुनाथ मंदिर में शूद्रों को प्रवेश दिलाकर संपूर्ण समाज के अविश्वास, मूढ़ता मतान्धता और असहनीय कट्टरपंथीय स्वभावों को बदलना चाहता है। गांधीवाद और नेहरूवाद का वैचारिक द्वन्द्व इस उपन्यास का वैचारिक धरातल है लेकिन अंतत: दोनों वाद हार जाते हैं। सच है कि स्वतंत्रता के पचास साल बाद भी कई राजनीतिक-सांस्कृतिक कारणों से गांधीवाद और नेहरूवाद असफल हो चुके हैं। भारत अभी भी गरीबी, अशिक्षा एवं भ्रष्टाचार के कारण पिछड़ा देश है।
इस असफलता का कारण निकृष्ट भारतीय राजनीति है। उनका तीसरा उपन्यास ‘अवस्थे’ (अवस्था; 1978) नए राजनीतिक एवं नैतिक मूल्यों की तलाश करता है। जनता-परक आन्दोलनों की राजनीति, नक्सलवादी आन्दोलन की गरम राजनीति और संविधान की अन्दरूनी नीच राजनीति और प्रामाणिक-नैतिक राजनीति में द्वन्द्व इस उपन्यास के प्रमुख वैचारिक संघर्ष है। इसमें मार्क्सवाद गांधीवाद और लोहियावाद के आपसी द्वन्द्व का आमना-सामना होकर, राजनीति को आध्यात्मिक स्तर पर ले जाने का प्रयास है लेकिन इतिहास की अपनी गति है, जहाँ कृष्णप्पा भी हार जाता है।
प्रामाणिक लेखक को यथार्थ और आदर्श के यायलेक्टिव को एक साथ ग्रहण करना संभव होना चाहिए, तभी साहित्य सच हो सकता है। इस द्वन्द्व का सजीव चित्रण ‘क्लिप जाइंट’, ‘खोजराज’ और ‘आक्रमण’ कहानियों में हुआ है। लेकिन पश्चिम की संस्कृति के विकल्प में भारतीय संस्कृति को खड़ा करना उनका उद्देश्य है।
‘सूर्यन कुदुरे’ (सूरज का घोड़ा), ‘अक्कय्या’ (दीदी) कहानी और ‘भव’ उपन्यास तक आते-जाते अनन्तमूर्ति अधिक परिपूर्णता प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ अनावश्यक द्वन्द्व अतिवादी विद्रोह नहीं है। बल्कि आत्मावलोकन, स्व-स्वीकृति और अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक राजनीति में भारत की सृजनशीलता की रक्षा का वैचारिक संघर्ष उजागर हुआ है। ‘हडे वेंकट’ (सूर्यन कुदुरे), ‘अक्कयया’ (अक्कय्या) और ‘चन्द्रप्पा’ (भव) पात्र भारतीय संस्कृति की शोध में पाए गए चरित्र हैं जिनमें कहीं भी उपनिवेशवाद, भूमण्डलीकरण और इतिहास बोध नहीं है। वे अपनी संस्कृति के आन्तरिक स्वरूपों को उजागर करते हैं जहाँ प्रकृति-श्री है। इस तरह अनन्तमूर्ति की सृजनात्मक लेखन-प्रक्रिया ‘कभी न समाप्त होने वाली कहनी’ (कहानी) से प्रारम्भ होकर ‘भव’ (उपन्यास) के आध्यात्मिक स्तर पर प्रकृति के दिव्य सान्निध्य में तादात्म्य पाने की कोशिश है। के .वी. सुब्बण्णा ने अनन्तमूर्ति के उपन्यासों को तीसरी दुनिया के अन्य देशों की रचनाओं की तुलना में अधिक सफल तथा श्रेष्ठ बताया है। जी. एस. अमूर ने अनन्तमूर्ति को एक गंभीर लेखक बतलाते हुए कहा है-‘‘पश्चिम में उपन्यास-विधा ही समाप्त हो रही है, इस संदर्भ में अनन्तमूर्ति का उपन्यास भारतीय संस्कृति के आन्तरिक तनावों, संघर्ष और कोलाहलों को समझने में अधिक उपयोगी है।’’ वी. एस. नायपाल, एरिक, ऐरिकसन, चिनुवा अचिबे जैसे लोगों ने अनन्तमूर्ति की रचनाओं को भारतीय संस्कृति के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण पाया है।
अनन्तमूर्ति के ‘आवाहने’ (आह्वान; नाटक) और ‘अज्जन हेगल सुक्कुगलु’ (दादा के कन्धों की झुर्रियाँ) ‘मिथुन’ (कविता-संग्रह) भी उनकी अन्य मौलिक कृतियों में मुखरित वैचारिक, साहित्यिक, जीवन-शोध की अभिव्यक्ति करते हैं। लेकिन उनकी आलोचनात्मक पुस्तक ‘प्रज्ञे मत्तु परिसर’ (1972), ‘सन्निवेश’ (1974), ‘समक्षम’ (1982) ‘पूर्वापर’ (1990), ‘बेत्तले पूजे याके कूडदु ?’ (नग्नपूजा पद्धति क्यों मना है ?; 1996) में केवल साहित्यकार द्वारा दी गई टिप्पणियाँ मात्र नहीं हैं, बल्कि वे एक संवेदनशील नागरिक द्वारा (साहित्येतर) भारतीय जीवन के सांस्कृतिक मूल्यों की तलाश हैं। इतना ही नहीं रसेल की तरह अनन्तमूर्ति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और जीवन के तमाम द्वन्द्वों पर विचार प्रकट करते हैं।
अनन्तमूर्ति कहते हैं: ‘‘मैं अपने आभ्यंतर का आलोचक (Critical Insider) हूँ। अपनी संस्कृति को अपनी दृष्टि से ही देखना, अनुमान करना हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है। हमारी परम्परा का विकास भी इसी कारण हुआ है। वेद की परम्परा आई। बुद्ध ने इस पर प्रश्न किया। मैं भी उसी परम्परा का हूँ। साहित्य का हूँ। साहित्य में भी बसवण्णा, कनकदास, कुमारव्यास, नवोदय लेखक नव्य लेखक, कालानुक्रम में परम्परा से यही प्रश्न करते, धक्का देते हुए उसका विकास करते हुए आए हैं।’’ उनके आभ्यंतर का यह आलोचक, स्वातंत्र्योत्तर सांस्कृतिक मूल्यों को, द्वन्द्वों को स्पष्ट रूप से बेधना चाहता है। ‘प्रक्षे मत्तु परिसर’ आलोचनात्मक पुस्तक में, ब्राह्मण-शूद्र की तपस्या, सार्त्र, सैमुएल बेकेट, शिवराम कारंत, राममनोहर लोहिया और अन्य भाषायी-साहित्यिक-वैचारिक समस्याओं पर गहरी आलोचना मुखरित हो उठी है। अंग्रेजी भाषा का वे आँख मूँदकर विरोध नहीं करते हैं। आज अंग्रेजी भाषा केवल भाषा ही नहीं-वह कई प्रकार के अधिकार, शक्ति, सत्तात्मक मूल्यों का प्रतीक और ज्ञान का आगार है। भारतीय भाषाएँ भी समृद्ध अवश्य हैं लेकिन राजनीतिक शक्ति के अभाव में वे विश्व में प्रमुख नहीं बनीं। एक ओर अनन्तमूर्ति अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध ज्ञान को ग्रहण करने के लिए कहते हैं तो अंग्रेजी भाषा के आक्रमणकारी स्वभावों का विरोध भी करते हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में हिंदी भी अंग्रेजी की तरह आधिकारिक-सत्तात्मक स्वभाव अपना रही है। इस तरह ‘अंग्रेजी-स्वभाव’ से रहित भाषा को मुक्त हृदय से अपनाकर देशी भाषा की भव्य परम्परा का, उसके अस्तित्व के स्वरूपों का पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत है। लोहिया, सार्त्र, मार्क्स के विचारों के साथ-साथ भारतीय समाज को समझने के लिए ऐसी भाषा को अपनाने में कोई गलती नहीं है। एक ओर विदेशी चिन्तकों से और दूसरी ओर भारतीय चिन्तकों से आकर्षित होकर अनन्तमूर्ति ‘मुक्त’ रूप से भारतीय संस्कृति को परखना चाहते हैं।
‘सन्निवेश’ (1974) और ‘समक्षम’ (1978) आलोचनात्मक पुस्तकें खासतौर पर सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित हैं। ‘पूर्वापर’ (1990) में एडवर्ड सईद की ‘ओरियण्टलिज़्म’ (Orientalism) पुस्तक की आलोचना करते हुए भारतीय संस्कृति के महत्त्व पर अधिक बल दिया गया है। अंग्रेज भी भारतीय संस्कृति से प्रभावित थे। गांधी, भगवान बुद्ध जैसे लोगों को सारी दुनिया स्वीकारती है। अमरीका, इंग्लैड की टूटती संस्कृति के परिवेश में गांधीवाद उन्हें अधिक प्रासंगिक लगता है। दक्षिण अफ्रीका के लेखक चिनुवा अचिबे के साथ जो महत्त्वपूर्ण संवाद किया उसने अनन्तमूर्ति को तीसरी दुनिया के आदमी को समझने के लिए प्रेरित किया है। दलित साहित्य, विकेन्द्रीकरण और संस्कृतिपरक कई आलोचनात्मक लेख इस पुस्तक में संकलित है।
1996 की पुस्तक ‘बेत्तले पूजे याके कूडदु’ में दर्शाया गया है कि तत्त्कालीन सार्वत्रीकरण से भारतीय संस्कृति की क्षेत्रीय पवित्रता खत्म हो रही है। समानता के आधार पर सार्वत्रीकरण होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, केपिटलिस्टों की सांस्कृतिक-राजनीति (Cultural Politics) नवबौद्धिकता की बेवकूफी, पलायनवादी बुद्धिजीवी और खोखले संस्कृति-कर्मियों पर उनके व्यंग्य को अनन्तमूर्ति की ‘सूर्यन कुदुरे’ (सूरज का घोड़ा), ‘अक्कय्या’ (दीदी) जैसी कहानियों के संदर्भ में उनकी तत्कालीन आलोचनात्मक पृष्ठभूमियों में समझा जा सकता है।
आजकल भारतीय मानस अमरीका, इंग्लैड आदि देशों के बारे में बहुत सोचता है किन्तु अपने ही प्रान्त की भाषा, संस्कृति के बारे में अधिक नहीं सोचता। इस तरह अपनी भाषा और संस्कृति के बारे में न सोचना और अनजान बने रहना हमारे लिए लज्जाजनक बात है। इसीलिए अनन्तमूर्ति ने क्षेत्रीय पवित्रता को बरकरार रखने पर बल दिया है। इस उपनिवेशीकरण की राजनीति से उपजी हमारी अपनी संस्कृति की रक्षा, अपनी भाषा में ही सृजन करने से संभव है। अनन्तमूर्ति हमेशा अपनी मातृभाषा कन्नड़ में ही सृजनात्मक कार्य करते आए हैं, यह इस बात की पुष्टि करती है। ऐसे लेखकों से अनन्तमूर्ति जी सदैव खिन्न रहे हैं जो विदेश में अपनी धाक जमाने के लिए अपनी संस्कृति को उनकी खुशी के लिए उघाड़कर रखते हैं और अंग्रेजी में लिखते हैं।
किसी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करते समय लेखक के सांस्कृतिक विचारों का हनन न हो जाए, यह बहुत ही नाजुक स्थिति है। अत: कन्नड़ मातृभाषा के नन्दकुमार हेगड़े ने इस स्थिति को हिन्दी में अनूदित करते समय वाक्य-संरचना में और शब्दों के प्रयोग में कितना ध्यान रखा उसकी एक-एक पंक्ति पर प्रो. नूरजहाँ बेगम (हिन्दी मातृभाषी) ने घंटों चर्चा करके समझ-बूझकर उसे अंतिम रूप दिया है। हमने अहिन्दीभाषियों के अनेक अनुवाद हिन्दी भाषा में देखे हैं जहाँ हमें यही लगा कि यदि किसी हिन्दी मातृभाषी के साथ मिलकर यह अनुवाद किया गया होता तो अनुवाद के सौन्दर्य को बरकरार रखा जा सकता था। अत: हम दोनों ने इसी मानसिकता से सोच-समझकर इस अनुवाद को सम्पन्न किया है।
अनन्तमूर्ति के संस्कृति-संबंधी विचार कई अंग्रेजी-कन्नड़ पत्रिकाओं में बिखरे हुए हैं; कई भाषाओं और साक्षात्कारों में उन्होंने संस्कृति-संबंधी विचार व्यक्त किए हैं। लेकिन उन सबको यहाँ अनूदित रूप में प्रस्तुत न कर, कुछ चुने हुए, भाषणों, लेखों और साक्षात्कारों का अनुवाद कर संकलित किया गया है। ‘पूर्वग्रह’ ‘आलोचना’ और ‘समकालीन’ भारतीय साहित्य’ पत्रिकाओं में पहले-पहल कई निबन्ध अनूदित हो चुके थे। जिन्हें अन्य प्रतिष्ठित रचनाकारों ने अनूदित किया था। उनकी कृपा से हमने पाठकों के अध्ययन की सुविधा के लिए उन लेखों को भी यहाँ सम्मिलित कर लिया है, उनके प्रति हम आभारी एवं कृतज्ञ हैं। प्रत्येक लेख के अंत में उसके अनुवादक का नाम दे दिया गया है। प्रो.यू.आर.अनन्तमूर्ति जी ने अनुवाद के लिए हमें अनुमति दी और राधाकृष्ण प्रकाशन ने पुस्तक को प्रकाशित करने का कष्ट किया, उनके प्रति भी हम बहुत आभारी हैं।
-नन्दकुमार हेगड़े
-प्रो. नूरजहाँ बेगम
-प्रो. नूरजहाँ बेगम
यह भारत कैसा राष्ट्र है !
(अयोध्या घटना पर एक विचार)
1
छ: दिसंबर की अयोध्या की घटना ने मुझे इस चिंतन के लिए प्रेरित किया है।
जब से हमने अंग्रेजों से मुक्ति पाई तब से यह प्रश्न उभर रहा है कि हमारा
किस प्रकार का राष्ट्र बन सकता है ? ‘नेशन स्टेट’
जैसी कल्पना ही हमारे लिए नई थी। यूरोप की भांति यदि हम एक नेशन स्टेट
बनाना चाहेंगे तो देश की सारी जनता का एक ही भाषा-भाषी, एक ही धर्म का और
एक ही जनजाति का होना आवश्यक है। किंतु भारत की स्थिति ऐसी नहीं है।
विविधता ही भारत की विशेषता है। अनेक भाषाएँ, अनेक धर्म, अनेक जन-जातियाँ,
अनेक प्रकार का खान-पान-इन सबको मिलाकर भारत बना है। यूरोपियनों की भाँति
भले ही हम एक नेशन स्टेट न रहें हों, किंतु हम पर शासन चलाने वाला देश
ब्रिटेन यूरोप का ही एक खंड था और साथ ही साथ एक नेशन स्टेट भी था। इसलिए
हमें भी अपने एक नेशन स्टेट बनने की संभावना से ही ब्रिटेन का सामना करना
पड़ा।
फलस्वरूप यह तलाश शुरू हुई कि दरअसल हम कौन हैं ? बंगाल के महान लेखक बंकिमचंद्र ने अपनी इस तलाश में क्षत्रिय श्रीकृष्ण को एक आदर्श के रूप में पाया। उनका आदर्श-व्यक्ति दार्शनिक संत चैतन्य प्रभु के प्रेमी कृष्ण नहीं थे, बल्कि महाभारत के योद्धा श्रीकृष्ण उनके आदर्श व्यक्ति बने थे।
परंपराओं से चिपका हुआ भारत बंगाल के राजा राममोहन राय को निकम्मा लगा। उन्होंने यह महसूस किया कि आधुनिकीकृत भारत ही ब्रिटेन की बराबरी कर सकता है। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा पर बल दिया और हिंदू धर्म को ईसाई धर्म के निकट लाने वाले सुधारों का सूत्रपात करते हुए ब्रह्मसमाज का निर्माण किया।
महाराष्ट्र में गरम-दल का कर्णधार बनकर तिलक ने ब्रिटेन का सामना किया। इस प्रकार का सामना करने के लिए कायर भारतीयों को संगठित करना आवश्यक मानकर उन्होंने ‘शिवाजी’ और ‘गणेश’ को प्रतीक बना लिया और पूर्ण ‘स्वराज्यवादी’ बन गए। हमने कभी इतना डटकर विदेशीयता का सामना नहीं किया था जितना यूरोप के ब्रिटेन के साथ करना पड़ा था। भारत में यवन देश का सिकंदर जैसे आया था वैसे ही लौटकर चला गया था। भारत पर बेशक कई विदेशियों ने आक्रमण भी किए; किंतु धीरे-धीरे वे सब अपने बनकर बस गए। मुस्लिम पराए बनकर आए जरूर किंतु भारत के ही बनकर बस गए। ब्रिटेन जो पराया था वह पराया ही रहा और भारत के ढाँचे को ही बदलने पर तुल गया। इस दबाव के परिणामस्वरूप जो तलाश शुरू हुई उसमें हम एक ओर सोद्देश्य हिंदू-धर्मी बनने की खटपट में लगे रहे और दूसरी ओर अंग्रेजों के रहन-सहन को आत्मसात करने की चेष्टा करते रहे। इस प्रकार आज भी हम अपनी अस्मिता की तलाश में एक ओर पक्का हिंदू बनने का प्रयास करने में लगे हैं तो दूसरी ओर आधुनिकीकृत्त यूरोपियन बनना चाहते हैं।
फलस्वरूप यह तलाश शुरू हुई कि दरअसल हम कौन हैं ? बंगाल के महान लेखक बंकिमचंद्र ने अपनी इस तलाश में क्षत्रिय श्रीकृष्ण को एक आदर्श के रूप में पाया। उनका आदर्श-व्यक्ति दार्शनिक संत चैतन्य प्रभु के प्रेमी कृष्ण नहीं थे, बल्कि महाभारत के योद्धा श्रीकृष्ण उनके आदर्श व्यक्ति बने थे।
परंपराओं से चिपका हुआ भारत बंगाल के राजा राममोहन राय को निकम्मा लगा। उन्होंने यह महसूस किया कि आधुनिकीकृत भारत ही ब्रिटेन की बराबरी कर सकता है। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा पर बल दिया और हिंदू धर्म को ईसाई धर्म के निकट लाने वाले सुधारों का सूत्रपात करते हुए ब्रह्मसमाज का निर्माण किया।
महाराष्ट्र में गरम-दल का कर्णधार बनकर तिलक ने ब्रिटेन का सामना किया। इस प्रकार का सामना करने के लिए कायर भारतीयों को संगठित करना आवश्यक मानकर उन्होंने ‘शिवाजी’ और ‘गणेश’ को प्रतीक बना लिया और पूर्ण ‘स्वराज्यवादी’ बन गए। हमने कभी इतना डटकर विदेशीयता का सामना नहीं किया था जितना यूरोप के ब्रिटेन के साथ करना पड़ा था। भारत में यवन देश का सिकंदर जैसे आया था वैसे ही लौटकर चला गया था। भारत पर बेशक कई विदेशियों ने आक्रमण भी किए; किंतु धीरे-धीरे वे सब अपने बनकर बस गए। मुस्लिम पराए बनकर आए जरूर किंतु भारत के ही बनकर बस गए। ब्रिटेन जो पराया था वह पराया ही रहा और भारत के ढाँचे को ही बदलने पर तुल गया। इस दबाव के परिणामस्वरूप जो तलाश शुरू हुई उसमें हम एक ओर सोद्देश्य हिंदू-धर्मी बनने की खटपट में लगे रहे और दूसरी ओर अंग्रेजों के रहन-सहन को आत्मसात करने की चेष्टा करते रहे। इस प्रकार आज भी हम अपनी अस्मिता की तलाश में एक ओर पक्का हिंदू बनने का प्रयास करने में लगे हैं तो दूसरी ओर आधुनिकीकृत्त यूरोपियन बनना चाहते हैं।
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